फटी पुस्तक की आत्मकथा : हिंदी निबंध

मै पुस्तक बोल रही हूँ



            "मैं पुस्तक हूँ! मुझे किताब भी कहते हैं। मैं पुस्तकालय में रहती हूँ। कुछ समय पहले तक तो मैं काफी सुंदर व स्वस्थ थी, लेकिन अत्यधिक समय होने के कारण अब में फटने लगी हूँ। मेरा कवर फट चका है और अंदर से कुछ पेज भी बाहर आने लगे हैं।
कदर करे जो मेरी, अच्छा इंसान उसे बनाती हूँ।”💧

            मुझे पढ़ने वाले प्रत्येक विद्यार्थी की मैंने मदद की। एक शिक्षक का ज्ञान बढ़ाया ताकि वह अपने विद्यार्थियों को अच्छा व पूर्ण ज्ञान दे सके। शुरुआत में मुझे बहुत संभालकर रखा जाता था लेकिन धीरे-धीरे अब मेरी महत्त्वता कम होती जा रही है। सबसे ज्यादा बुरा तो मुझे तब लगा जब किसी एक व्यक्ति ने मुझे पढ़ते पढ़ते अपने काम के लिए मेरा एक पृष्ठ फाड़ लिया और मैं कुछ ना कर सकी।

        मुझे सही ढंग से ना रखने की वजह से मेरा स्वरूप बिगड़ता गया और मेरी हालत खराब होती चली गई। इस प्रकार में जगह-जगह से फटने लगी और मेरे कई पन्ने भी निकलते चले गए। इसके साथ उन पन्नों का ज्ञान भी मुझमें से निकल गया और मैं पहले से कम ज्ञान को संरक्षित करने वाली पुस्तक बन गई।

        मैं जानती हूँ, मैं फट चुकी हूँ, लेकिन अभी भी मेरा उतना ही महत्व है जितना शुरुआत में था। तब मैं काफी अच्छी व नई थी। मुझे लगता है कि एक समय पश्चात मुझे रद्दी बराबर समझा जाएगा। सैकड़ों पैसों में खरीदकर हमें चंद पैसों में बेच दिया जाएगा। लेकिन मेरी इच्छा है कि अभी भी मुझे कोई सुधारकर पढ़ना चाहे तो वह बेशक पढ़ सकता है, क्योंकि मेरी महत्त्वता जरा भी कम नहीं हुई है। मैं तो हमेशा से ही अपना
कर्तव्य निभाती आई हूँ और आगे भी निभाती रहूँगी।
 “अहमियत को मेरी समझे जो इंसान, संभाल के रखे मुझे तो बनाऊँ उसे विद्वान।”